कहानी संग्रह >> अगला यथार्थ अगला यथार्थहिमांशु जोशी
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हिमांशु जोशी की हृदयस्पर्शी कहानियों का संग्रह...
तपस्या
"आख़िर दिया क्या आपने हमें?” मृत्यु से पूर्व, एक दिन रुग्ण पत्नी ने सहज आक्रोश में भरकर कहा तो वे देखते रह गए।
''तुम भी क्या ऐसा ही सोचती हो?” उन्होंने सहमते हुए उत्तर दिया था।
“हां-हां, सोचती हूं, ज़रूर सोचती हूं।” कुछ क्षण का सन्नाटा तोड़ते हुए उसने कहा, “जिंदगी-भर मेरे बच्चे एक-एक टुकड़ा रोटी के लिए तरसते रहे। मैके से मांग-मांगकर गुजारा चलाती रही। बच्चे आगे नहीं पढ़ सके कि फीस के लिए पैसे कहां से लाती? तीज-त्यौहारों पर बाहर निकलने के लिए झींकते रहे कि तन ढकने के लिए कभी ढंग के कपड़े नसीब नहीं हुए। मैं दूसरों के खेतों में काम करती रही, कभी उफ तक न की कि कहीं तुम्हारी इज्जत पर बट्टा न लगे। तुम गांधी जी की 'जै-जैकार' के नारे लगाते हुए, एक नशे की जैसी हालत में, दीन-दुनिया से बेख़बर घूमते रहे। कभी एक बार भी पीछे मुड़कर तुमने यह न देखा कि हम जीवित हैं या मर गए...भूले-भटके से कभी शिकायत से कुछ कहा तो तुम यही समझाते रहे-
“देश-सेवा का काम पुण्य का काम है। देश आज़ाद होगा कभी, तो हमारे भी दुःख-दर्द दूर हो जाएंगे... पर मैं पूछती हूं-आज़ादी के बाद भी हमें दो जून की रोटी सुख से कब नसीब हुई? बच्चे बड़े होकर जुगाड़ न करते तो हम लोग कहीं भीख मांग रहे होते..."
"यशवंती, तुम ठीक कहती हो।” एक गहरी सांस लेते हुए रथीन बाबू बड़े दर्द के साथ बोले, "मैं जानता हूं, सुबोध आगे क्यों नहीं पढ़ पाया। सुमिता की शादी क्यों ऐसे घर में हुई। बड़ा बेटा रंगनाथ थोड़ी-सी ही बीमारी में कैसे चल बसा। ...हमने एक व्रत लिया था-देश-सेवा का! पराधीनता की बेड़ियों से देश को मुक्त करने का। धरती का ऋण आखिर किसी को तो चुकाना ही था... किसी को तो शहीद होना ही था, हमारा सौभाग्य रहा कि हम ही हो गए..." उनका स्वर पथरा-सा आया।
उन्होंने सोचा भी न था कि यशवंती के मन में कहीं ऐसा भी टूटा कांटा अब तक अटका हुआ है। आज़ादी के इतने वर्ष बाद भी !
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- इस बार बर्फ गिरा तो
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